मंगलवार, 26 जुलाई 2016

पुस्तक समीक्षा : कमीना


लेखक : शुभानन्द
प्रकाशक : सूरज पॉकेट बुक्स l
अस्सी और नब्बे के दशक में पल्प फिक्शन का काफी बोलबाला हुवा करता था ,
तब मनोरंजन के साधन कमतर होने कारण पल्प फिक्शन का बाजार ख़ासा मुनाफे का था l
हर बार नए नए लेखक उभरते ,नए नए पात्र बनते, कुछ पात्र अच्छे होते ,
कुछ बुरे तो कुछ ग्रे शेड लिए हुए l
इन्हें पल्प फिक्शन कहकर हमेशा से साहित्य की मुख्यधारा से अलग रखा गया , 
वजह थी इनकी कैची लैंग्वेज ,भाषा ,कहानी कहने का तरीका ,
और छपाई की क्वालिटी l
किन्तु साहित्य की दुनिया में अछूत मानी जानेवाली यही पल्प फिक्शन बिक्री
 में सबसे आगे रहती थी l
उस समय पल्प फिक्शन यानी लुगदी साहित्य बड़े ही निम्नस्तर 
के पेजेस पर छपा करता था ,जो लुगदी से बना होता था ,
जिस कारण उपन्यास की मोटाई भी काफी दिखती l
लेकिन बदलते समय के साथ ही साथ लुगदी साहित्य भी कही पीछे छूट गए , 
रह गए तो केवल कुछ धुरंधर लेखक जो अभी भी इस विधा को आगे बढ़ा रहे है
 किन्तु बदले हुए स्वरूप में l
जिनमे से वेद प्रकाश शर्मा एवं सुरेन्द्र मोहन पाठक जी का नाम प्रमुखतया है l
अब लुगदी साहित्य लुगदी नहीं रहा , 
उसका स्वरूप अब चमकदार व्हाईट पेपर और ग्लोसी कवर ने ले ली , 
अब लुगदी साहित्य हार्पर कॉलिन्स जैसे प्रकाशनों से भी छपने लगी थी l
यदि इन गिनती के लेखको के नाम छोड़ दिये जाए तो बमुशिकल ही कोई
 और मिलेगा जो इस साहित्य को आगे बढ़ाने को तत्पर होगा l
अस्सी और नब्बे के इसी जूनून को अपने में समेटे कुछ लोग आज भी इस विधा
 को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे है जो वाकई सराहनीय है l
मेरी ही जानकारी में कुछ मित्र है जो इस जूनून से ग्रस्त है ,
इनमे से एक है ‘’कंवल शर्मा ‘’ जी एवं ‘’शुभानन्द जी ‘’l
शुभानन्द जी बाल पॉकेट बुक्स के बेताज बादशाह कहे जाने वाले
 ‘’एस सी बेदी ‘’ के बड़े फैन है ,उनकी बाल पॉकेट बुक्स एवं उनके 
लिखे चरित्रों ‘’राजन-इकबाल ‘’ की दीवानगी में उन्होंने राजन-इकबाल को 
आधार बना कर कई उपन्यास लिख डाले l
और अपने इसी जूनून में वे एक कदम आगे की ओर बढ़ कर प्रकाशन
 क्षेत्र में भी उतर चुके है , वे जिनके दीवाने थे वे ‘’एस सी बेदी ‘’ भी
 अब इनके प्रकाशन ‘’सूरज पॉकेट बुक्स ‘’ में राजन इकबाल सीरिज का एक
 नया उपन्यास लिख रहे है ,वो भी काफी अंतराल के बाद l
पल्प फिक्शन की इसी कड़ी में बात करूँगा शुभानन्द जी द्वारा लिखित ‘’कमीना ‘’ 
के बारे में ,जो उनके द्वारा रचित पात्र ‘’जावेद-अमर-जॉन ‘’
 सीरिज का तीसरा उपन्यास है l
इसकी कहानी है अभिषेक मिश्रा की , वो कहानी का सूत्रधार भी है l 
अभिषेक छोटे शहर का एक अति महत्वकांक्षी युवक है , 
वो जीवन में आगे बढ़ने के लिए कुछ भी कर सकता है l
लेकिन वह जानता है के उसकी यह लालसा छोटे शहर में पूरी होने से रही ,
इसलिए वह राह पकड़ता है मुंबई की l
अभिषेक केवल नौवी तक पढ़ा बंदा है ,लेकिन दिमाग लोमड़ी की तरह शातिर है l
कुछ छोटे मोटे काम करने के बाद उसने हाथ थामा दिलावर का ,जो ड्रग माफिया था ,
 और उसका ड्रग नेटवर्क गोवा तक फैला हुवा था l
दिलावर जो अनुभवी ड्रग डीलर था ,किन्तु इसके बावजूद उसके काम में जोखिम अधिक था , 
ड्रग डील में हुयी पुलिस की झड़पो से कई बार उसका नुकसान भी हुवा था l
अभिषेक ने दिलावर के गैंग में कदम रखते ही अपनी दूरदर्शिता एवं लोमड़ी सी बुद्धि
 का प्रयोग करना शुरू कर दिया, अभिषेक ने अपने तरीके से काम को सम्भाला ,
दिलावर अभिषेक से प्रभावित हो गया था वह उसकी क्षमता को आँक चूका था , 
जहा दिलावर का दिमाग खत्म होता था वहा से अभिषेक का शुरू होता था l
इस बात का अहसास दिलावर को जब हुवा तब तक बहुत देर हो चुकी थी l 
अभिषेक किसी के रोके न रुकने वाला था l
किन्तु फिर इसका रास्ता काटा ‘’जावेद-अमर-जॉन ‘’ रूपी बिल्लियों ने , 
लेकिन अभिषेक भी कोई चूहा न था जिसे बिल्ली हजम कर जाये वह ऐसा 
छछुन्दर था जिसे सांप भी न निगल पाए न उगल पाए l
फिर शुरू हुवा ‘’तू डाल डाल मै पात पात ‘’ का खेल जिसमे जीत किसकी होनी है 
यह उपन्यास के अंतिम पृष्ठ ही बताएँगे l
लेखन शैली की बात करे तो कमीना पढ़ते समय आपको लगता है के आप वाकी पल्प
 फिक्शन पढ़ रहे है न की पल्प के नाम पर काले पन्ने l
कहानी शुरू से अंत तक कसावट लिए हुए है , कही भी ऐसा न लगा के कहानी 
अपनी पकड खो रही है l 164 पृष्ठों की इस कहानी में नकारात्क किरदार अभिषेक
 ही हर जगह छाया रहा है l इसकी प्रेजेंस इतनी पावरफुल है के उसके सामने 
जावेद-अमर-जॉन मेहमान कलाकार मात्र रह गए l
कैरेक्टर डिजायनिंग बढ़िया है ,चाहे अभिषेक हो या भदेस ‘’दिलावर ‘’ ,
सबकी रूपरेखा इस तरह रखी गयी है के पढ़ते समय इनका एक अक्स
 दिमाग में उभर आता है l
नैरेशन भी समां बाँधने में कामयाब है ,अभिषेक खुद अपनी कहानी का सूत्रधार है ,
अपने लिए गए एक-एक कदम का उसे संज्ञान है किन्तु फिर भी उसे किसी चीज की 
ग्लानी नहीं है ,न कोई रंज है l
इसके चरित्र पर शीर्षक एकदम उपयुक्त और सटीक है l
सारी बातो का सार यह के थ्रिलर ,सस्पेंस एवं रोमांच पसंद पाठको को यह उपन्यास 
अवश्य पसंद आएगा यदि कही और तुलना न की जाए तो l
यदि हम नए नवेले उपन्यासकारो की तुलना ‘’वेद प्रकाश ‘’ एवं ‘पाठक ‘’ 
जी से करने लग जाए और उसी चश्मे से पढना शुरू करे तो यकीन मानिए यदि
 लेखक ने बेहतर भी लिखा हो तो भी आप उसे कमतर ही समझेंगे l  
इसलिए इसे पढना हो तो पहले से बनाए दायरों से थोडा निकल कर पढ़े तब 
ज्यादा मजा आयेगा और पसंद भी आयेगी l

देवेन पाण्डेय 

बुधवार, 13 जुलाई 2016

पुस्तक समीक्षा : ‘’जस्ट लाइक दैट ‘’


लेखक : मिथिलेश गुप्ता l
प्रकाशक : सूरज पॉकेट बुक्स l
मिथिलेश गुप्ता से मेरी जान पहचान फेसबुक से ही हुयी है ,मै काफी अरसे से इन्हें जानता हु ,लेकिन मुलाक़ात हाल ही में मुंबई में इनकी पुस्तक के लांच के दरम्यान ही हुयी l
उनसे मिलकर ऐसा ही नहीं के मै उनसे पहली दफा मिल रहा हु ,वे आसपास के ही पहचान के व्यक्ति लगते है , मानो उन्हें काफी पहले से जानता हु ,तो बेवजह की तकल्लुफ के बजाय हम किसी पुराने दोस्त की तरह ही मिले l
अब पुस्तक की समीक्षा में भला इस वाकये की चर्चा क्यों जरुरी है ?
वो इसलिए क्योकि इनकी लेखन शैली ,कहानी ,एवं पात्र भी इन्ही की तरह ही है , यानी के आप इसके हर पात्र को जानते है ,ये किसी तथाकथित मोडर्न लेखक के हाई प्रोफाईल कैरेक्टर्स नहीं है ,यह जमींन से जुड़े और सामान्य पात्र है l
पुस्तक असल में तीन अलग अलग कहानियो का गुलदस्ता है ,चूँकि मिथिलेश की यह प्रथम नावेल है , इसके पहले उनकी शोर्ट नावेल प्रकाशित हो चुकी है ,किन्तु मै उसे नावेल की श्रेणी में नहीं रखूंगा l
छोटी कहानियो में रोचकता बनाये रखना आसान होता है ,लेखक की असल परख तो कहानी के विस्तार से होती है ऐसा मेरा व्यग्तिगत रूप से मानना है l
क्योकि जब आप 200 -300 पृष्ठों का उपन्यास लिखने बैठते है तब उसमे असल चुनौती होती है कहानी में रोचकता बनाये रखने की न की बेफिजूल की बातो का वर्णन करके पेजेस भरने की l
यहाँ मिथिलेश जी लगभग सफल रहे है , लगभग इसलिए क्योकि उन्हें अभी काफी कुछ सीखना है ,और वे तेजी से सिख भी रहे है ,आत्मसात कर रहे है ,इसका उदाहरण आपको उपन्यास की हर कहानी पर दिखेगा ,
पहली कहानी है नुक्कड़ वाला लव ,और यह अपने नाम की तरह ही है ,ये कुछ ऐसे लौंडो की कहानी है जो प्यार का मतलब कवर आवारागर्दी और लडकी को परेशान करने को ही समझते है ,इनके लिए प्यार का अर्थ ही अलग है ,ये नहीं तो दूसरी ,दूसरी नहीं तो तीसरी ,
और यह पढ़ते हुए अवश्य आपको अपने आसपडोस या  गली मुहल्ले के मजनू याद आयेंगे जो प्यार की परिभाषा से खिलवाड़ करके प्यार को बदनाम ही कर रहे है l
दूसरी कहानी है कॉलेज वाला लव ,यहाँ ट्रीटमेंट पहली कहानी से अधिक परिपक्व है l शायद प्यार का नेक्स्ट लेवल होने के कारण l ( खैर यह तो मजाक की बात है )
यहाँ दो कॉलेज के दोस्तों की कहानी है , इस उम्र में प्यार तो होता ही है लेकिन यह उम्र ऐसी है के प्यार से ज्यादा आप गलतफहमियो के शिकार अधिक होते है l
दोस्ती प्यार गलतफहमी इत्यादि का मिलजुला मिश्रण है कॉलेज वाला लव ,जो अंदर तक गुदगुदा देता है l
तीसरी कहानी है लाईफटाईम वाला लव ,और यह कहानी तीनो कहानियो में सबसे बढ़िया है , शायद यहाँ तक आते आते मिथिलेश जी ने काफी बारीकियाँ आत्मसात कर ली ,l
यह कहानी है प्यार की और प्यार के नाम पर हुए छल की ,किसी के लिए प्यार मात्र एक जरिया होता है अपनी मंजिल तक पहुँचने का तो किसी के लिए डील से किया गया प्यार उम्र भर का दर्द बन जाता है l
यह कहानी ऐसे ही दर्द को बयान करती है ,
कुल मिला कर पुस्तक में वैरायटी है काफी ,यही कारण है के नये लेखक के बावजूद भी पढ़ते हुए कही उकताहट नहीं होती l
वैसे मै रोमांटिक जेनर में कुछ ख़ास दिलचस्पी नहीं रखता , क्योकि आजकल रोमांटिक लेखको की एक बाढ़ सी आ गयी है , किन्तु इसके बावजूद मिथिलेश जी की इस पुस्तक में ऐसा कुछ नहीं है जिसे मै रोमांटिक के नाम पर कूड़ा कह सकू l
उनका नैरेशन ,अंदाज-ए-बयाँ किसी नामी गिरामी लेखक की तरह कृत्रिम नहीं है ,वे सहज सुलभ भाव से लिखते है जिससे पाठक को कहानी से जुड़ने में आसानी होती है ,और यही मिथिलेश की खूबी है l
मै कमियों की बात नहीं करूँगा ,कोई भी परफेक्ट नहीं होता l मै सकारात्मकता में विश्वास करता हु ,और नए और उत्साही लेखको  ( ख़ास तौर से अंग्रेजी के दौर में भी हिंदी को प्राधान्य देनेवाले लेखक )
की कमियों को नजरअंदाज करता हु ( यदि वे वाकई छोटी एवं नजरंदाज करने लायक हो तो ) l
बस इतना ही कहूँगा थोडा मौका देकर देखिये ,यकीनन इससे बदलाव होगा l
अंग्रेजी के वर्चस्व की चलते आजकल अधिकतर लेखक हिंदी लिखना नहीं चाहते ,क्योकि अंग्रेजी में नाम और पैसा हिंदी के मुकाबले में अधिक है ,ऐसे दौर में हिंदी को प्राधान्यता देने वाले लेखको को देखकर ख़ुशी होती है , हिंदी से मेरा अर्थ भारी भरकम शब्द ,उपमा अलंकारों से नहीं है , मै जनसामान्य से जुडी हिंदी की बात कर रहा जिसमे नए लेखको को न सिर्फ सुविधा होती है बल्कि पाठको को भी कहानी से जुडाव सहज रहता है l

अंत में मिथिलेश भाई को शुभकामनाये देना चाहूँगा l



शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

शार्ट फिल्म रिव्यू : कृति

आजकल एक नया ट्रेंड आया है ,शार्ट फिल्म्स का
इंटरनेट के बढ़ते चलन के कारण अब इंटरनेट एक ऐसा माध्यम बन चुका है
जहां रचनात्मकता को सही स्थान मिलता है l
अब लोग केवल टीवी या थिएटर्स पर ही निर्भर नहीं है l
इसी को मद्देनजर रख अब कुछ ऑनलाइन चैनल्स भी रहे है जिनके लिए स्पेशली केवल ऑनलाइन देखे जानेवाले एपिसोड्स एवं फिल्में बनायी जाती है और देखि जाती है l
हाल ही में कुछ शार्ट फिल्में यूट्यूब पर रिलीज हुयी जिन्हे अच्छा प्रतिसाद भी मिला l
इसी कड़ी में है एक मनोवैज्ञानिक थ्रिलर ''कृति '' जिसे बनाया है ''शिरीष कुंदर '' ने और अभिनय किया है 
मनोज बाजपेयी ,राधिका आप्टे ,नेहा शर्मा ,मनु ऋषि ने l
‘’सपन’’  ( मनोज ) एक मनोवैज्ञानिक सिंड्रोम से ग्र्स्त व्यक्ति है , वे एक लेखक की भूमिका में है l
समय समय पर वे ‘’ कल्पना’’( राधिका ) से सलाह लेते है उपचार करवाते है , 
कल्पना’’एक मनोवैज्ञानिक है , सपन अपने अकेलेपन से तरह तरह की कल्पनाएं करते रहते है l
वो कल्पना को बताते है के उनके जीवन में एक लड़की चुकी है जिससे वे प्यार करते है ,
जिसका नाम है कृति l
कल्पना उन्हें चेताती है के ऐसी कोई लड़की नहीं है वो सिर्फ तुम्हारी कल्पना का रूप है l
लेकिन वे उसकी बातो को नहीं मानते , लेकिन फिर शंका होने पर वे कृति  की वास्तविकता को परखने का प्रयास करते है , जिसमे सपन के द्वारा नेहा की ह्त्या हो जाती है l
किन्तु उन्हें इसका कोई अफ़सोस नहीं , क्योकि अब वो भी मानते है के कृति कोई जीती जागती
लड़की नहीं बल्कि केवल उनकी कल्पना है l
लेकिन यहाँ कहानी में ट्विस्ट आता है जब एक पुलिसवाला  ‘’सृजन’’ (मनु ऋषि) 
 उसके घर तफ्तीश करते पहुँचता है , और वहां कृति की लाश देखता है l
सपन भौंचक्का है के ये तो उसकी कल्पना थी फिर उसकी लाशसृजन’’  को कैसे दिख सकती है ?
वो उसे समझाने का प्रयास करता है , के ये मात्र उसकी कल्पना है l
और उसने कोई कत्ल नहीं किया है , ’सृजन’’  को यकीं दिलाने के लिए वह 
उसे अपने डॉकटर  कल्पना के पास  ले जाता है l
और वहां पहुंचकर उसे एक और हैरानी का झटका लगता है l
फिर जो होता है वो काफी मजेदार है , वैसे दर्शक कुछ हद तक कहानी का अंदाजा स्वयं लगा लेते है ,
किन्तु क्लाईमैक्स को उनके अंदाजे के साथ साथ एक अलग ही  ट्विस्ट दिया  जाता है l
कुल मिला कर १८ मिनट की यह शार्ट फिल्म दिलचस्पी बनाये रखती है l
अठरह मिनट की कहानी बेहद रोमांचक बन पड़ी है जिसे एक बार तो अवश्य ही देखा जा सकता है l 
बॉलीवुड की प्रचलित प्रेमकहानी ,मसाला फिल्मों से कुछ हटकर और दिलचस्प कहानिया देखना हो 
तो अवश्य इन शार्ट फिल्म्स को देख सकते है l
मनोज बाजपेयी इसके पहले भी एक शार्ट फिल्म ''तांडव '' नजर चुके है जो यूट्यूब पर है
और राधिका आप्टे भी कुछ इसी तरह की थ्रिलर में पहले भी चुकी है ,
उनकी शार्ट फिल्म ''अहिल्या '' भी काफी चर्चित रही है l

एक बढ़िया अनुभव के लिए जरूर देखिये , वैसे भी पैसे तो खर्चने नहीं है ,
बस कुछ एम बी डेटा खर्च होंगे जो वाई फाई और फॉर जी  के समय में एक मामूली बात है l

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