गुरुवार, 28 मई 2015

पुस्तक समिक्षा : कोहबर की शर्त

बड़े दिनों से इस पुस्तक की तलाश थी , बड़ी मुश्किल से मिली और मैंने एकाध पृष्ठ पलट कर देखे , पुस्तक कोई नया संस्करण नहीं था ! पुराना ही संस्करण था ,जिसमे से पुरानी पुस्तक की महक आ रही थी ,जो भीनी भीनी सी थी ! और इसी महक के कारण पुस्तक पढने का वातावरण भी तैयार हो गया , गंवई भाषा को देखकर पुस्तक से अपनत्व जुड़ गया किन्तु खुद को संभाला !
कारण यह था के इस पुस्तक को एक ही बैठक में समाप्त करने की इच्छा हो रही थी ,और इस व्यस्तता भरे जीवन में यह संभव नहीं हो पा रहा था ! उन्ही दिनों किसी कार्य वश गाँव जाना तय हुवा और पुस्तको के संग्रह में यह पुस्तक भी शामिल हो गई ! और सोचा गाँव में आराम से पढेंगे ,
गाँव पहुँचते ही , जैसे ही पहली फुर्सत मिली इस पुस्तक को पकड़ा और शुरू हो गया ! गाँव पहुँचने के पश्चात इस पुस्तक को पढने का आनंद दुगुना हो गया ,क्योकि तब इसके परिवेश से स्वयम को आसानी जोड़ पाया . इस पुस्तक का नाम है ‘’कोहबर की शर्त ‘’ जिसे लिखा स्वर्गीय केशव प्रसाद मिश्र ने .  इस पुस्तक को पढने के पीछे एकमात्र कारण था इस पुस्तक पर बनी फिल्म ‘नदिया के पार ‘  !
 जी इसी पुस्तक पर यह फिल्म आधारित थी ,किन्तु पुस्तक में जो कहानी थी उसे उसी तरह प्रस्तुत करने की हिम्मत दिग्दर्शक लेखक शायद नहीं कर पाए, और पुस्तक के विपरीत फिल्म को एक सुखद  मोड़ पर लाकर समाप्त कर दिया गया .
जबकि पुस्तक में होता इसके विपरीत है ,चरित्र वही है , चन्दन गुंजा , ओमकार , बैद जी ,काका और परिवेश भी वही ,नदी भी वही नदिया का पार भी वही ! चंदन का लड़कपन भी वही तो गूंजा का अल्हडपन भी वही , तो क्या अलग था पुस्तक में ?  वह थी इसकी आत्मा ,
जी हां ,फिल्म देखकर जहा इन पात्रो के जिवंत अभिनय से मंत्रमुग्ध हो उनसे जुड़ गया था ,एवं उनके सुख दुखो में स्वयम को भागीदार मानते हुए फिल्म के एक किरदार की तरह फिल्म को जिया था  ! वही इस पुस्तक को पढ़कर पता लगा के इन किरदारों एवं इनके सुखो को किस तरह ग्रहण लगा हुवा था , किस तरह चंदन का जीवन कभी न खत्म होनेवाले दुखो के अंतहीन सिलसिले से गुजरा था वह पाठको को द्रवित कर देता है ,एक ऐसे जीवन की कहानी जिसमे सुखो की मात्र क्षणिक झलक दिखलाकर नियति कभी न थमने वाली पीड़ा की  सौगात दे जाती है !
ओमकार और चन्दन दो भाई है ,न बाप न माँ , माँ बाप दोनों के रूप में मिले निसंतान ‘काका ‘ !
दोनों भाइयो का आपसी प्रेम देखकर काका के हृदय में ठंडक पड़ जाती है , ‘आगे नाथ न पीछे पगहा ‘ को चरितार्थ करती जोड़ी थी तीनो की ! इन तिन मर्दों ने स्वयम को घर और खेती बाड़ी में बाँध लिया है ,यदि पडाईन मौसी न रहे तो इन्हें कोई पूछे भी नहीं , काका की तबियत खराब हुयी तो नियति चंदन को चौबेछपरा ले गई बैद जी के पास , बैद जी के घर काका की दवाई का व्यवहार शुरू हुवा तो काका की बिमारी तो ठीक हो गई किन्तु ओमकार की बिमारी का भी इलाज हो गया ,बैद की बडकी बिटिया के रूप में उसके अकेलेपन को भी सहारा मिल गया .
अच्छा रिश्ता देख बैद जी ने भी बड़ी बिटिया के लिए ओमकार का हाथ मांग लिया और बियाह भी हुवा , किन्तु इन रिश्तो के बिच एक और रिश्ता पनप रहा था, जो था चंदन एवं बैद जी की छोटी बिटिया गुंजा के बिच ! जो प्रेम में बदल गया , समय के साथ घर में एक नन्हा मेहमान आया और चंदन चाचा बन गया  ! किन्तु सुखो की यह शीतल फुहार हमेशा न रह पायी और इनके सुखो को नजर लग गई  जो सबसे पहले तो भाभी को सबसे अलग कर गई , इतना कम था के नियति ने ऐसा खेल खेला के गुंजा और चंदन का रिश्ता ही बदल गया ! और गुंजा इस घर की दूसरी बहु बनी किन्तु ओमकार की ही पत्नी , न चंदन कुछ कर पाया और न गुंजा ,  अपने इस अपराधबोध के कारण चंदन भी अवसाद में रहने लगा ! हमेशा चंचल अल्हड रहनेवाला चंदन अब हँसना भूल गया ,  यह दुखो का अंत नहीं था , काका का भी साथ छूटा और गाँव में महामारी फ़ैल गई जो न जाने कितने ही परिवारों को ले डूबी ! इन परिवारों में एक परिवार चंदन का भी था .
 इसके बाद जो होता है वह किसी को भी द्रवित कर देने के लिए पर्याप्त है ,
150 पृष्ठों की पुस्तक कब खत्म हो गई पता ही न चला , केशव प्रसाद जी की लेखनी कमाल की है ,वे दर्द को भलीभांति उकेरते है ! ऐसा के आप स्वयम उन पात्रो के दुखो से दुखी होने लगते है ! क्या नियति इतनी भी कठोर हो सकती है ?  क्षण भर सुखो का मूल्य इतने दुखो से चुकाना पड़ता है ?

पुस्तक सुख एवं दुःख के धरातल पर लिखी गई है ,जिसमे दुःख का पलड़ा भारी है ! केशव प्रसाद जी की यह पहली पुस्तक है जो मैंने पढ़ी ,जिसके बाद मुझे उनकी अन्य पुस्तको को पढने की भी तीव्र इच्छा हो रही है ! चूँकि लेखक स्वयम पुस्तक में दर्शाए गाँव के निवासी रह चुके है इसलिए गाँव का सजीव चित्रं भलीभांति किया है जो निखर के सामने आया है ! साहित्य प्रेमियों को अवश्य पढनी चाहिए , 

रविवार, 24 मई 2015

फिल्म एक नजर में : तनु वेड्स मनु 2


 
फिल्म की शुरुवात वही से होती है जहा इसका प्रथम भाग समाप्त हुवा था ,
यानी तनु एवं मनु के विवाह के बाद ! 
तनु एवं मनु अपने विवाह को पांच साल निभा चुके है या कहा जाए झेल चुके है ,
शुरुवाती दिनों का प्रेम जल्द ही साबुन के झाग की तरह बैठ गया ,और दोनों के विपरीत स्वभाव जिन्होंने दोनों का रिश्ता मजबूत बनाया था ,वही इनके अलगाव का कारन बनता है !
मनमुटाव एवं झगड़ो के चलते अब दोनों अलग हो चुके है , और तनु भी वापस कानपूर आ चुकी है ,जहा परिवार वाले फिर से उसकी उल जलूल एवं बिंदास हरकतों से परेशान हो जाते है ! मनु ( आर माधवन ) भी अब लखनऊ आ चूका हा और मनु को फिर से पाने का प्रयास करता है किन्तु उसके हाथ निराशा ही लगती है !
तब उसकी जिंदगी में आती है दत्तो ( कंगना ,दोहऋ भूमिका में ) जो एक एथलीट है , उसकी शक्ल काफी हद तक तनु से मिलती है , पहले मनु उसे तनु समझ कर पीछा करता है किन्तु ग़लतफ़हमी दूर होने पर वह दत्तो के स्वभाव से प्रभावित होकर उसके प्रेम में पड़ जाता है !
दूसरी ओर तनु भी अपने पुराने प्रेमी ‘अवस्थी ‘( जिमी शेरगिल ) की ओर उम्मीद से लौटी है किन्तु उसका मन कही न कही मनु में ही बंधा हुवा है जिसे अवस्थी भी समझता है ,और वह उसे समझाने का प्रयास भी करता है ! यहाँ एक संयोग यह होता है के जिस लडकी से वह विवाह करने वाला है वो दत्तो ही है ,जिसके चलते मनु के दुबारा अपनी राह में आते देख वह भडक जाता है !
मनु एवं दत्तो विवाह करने की तैय्यारिया भी करने लगते है ! फिर क्या होता है यह फिल्म में ही देखे तो ज्यादा अच्छा रहेगा ,फिल्म में तनु के चरित्र से जहा दर्शको को चिढ होने लगती है तो वही दत्तो के चरित्र से सहनुभूति भी होने लगती है ! कंगना राणावत बेशक फिल्म की हीरो है ,किन्तु जिमी भी यहाँ अपना कमाल दिखाते है जबकि उनका रोल बहुत छोटा है , अपने देसी रोल में वे इस बार पहले की तरह खूंखार जरुर है किन्तु निगेटिव नहीं लगते  !
माधवन दबे से नजर आते है ,
फिल्म मनोरंजन करती है ,किन्तु मध्यांतर के पश्चात धीमी हो जाती है , जल्द ही वापस अपनी गति पकडती है !  गीत हिट जरुर है लेकिन ख़ास असर नहीं छोड़ते , पम्मी के रूप में दीपक डोबरियाल उवर एक्क्तिंग करते है ,जिससे थोड़ी चिढ हो सकती है , दत्तो के किरदार में कंगना ने कमाल का अभिनय किया है ! उनकी हरियाणवी शैली से लगता ही नहीं के यह कंगना रानावत है ,बल्कि वाकई भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है के कही यह दत्तो सच में ही तो कोई हरियाणा की एथलीट तो नहीं !
फिल्म में एक दर्शक के नाते आप तनु के बजाय दत्तो के पक्ष में ज्यादा नजर आयेंगे और यही इसकी खासियत है !  अभिनय पक्ष मजबूत है , हल्की फुलकी फिल्म है , एक दृश्य पर हंसी आती है जब जिमी को पता चलता है के तनु के खोने के बाद वह जिस लडकी को तनु की हमशक्ल मान कर शादी करनेवाला है ( दत्तो ) उसी से मनु का रिश्ता हो रहा है ,तो वह खीज जाता है और तनु को कहता है ,
आपके मनु जी न खुद चैन से रहेंगे न रहने देंगे ,पहले आप को हमसे छीन के ले गए ,फिर जब आपकी हमशक्ल से शादी कर रहे है तो अब उसे भी ले जा रहे है ये तो वही बात हुयी ! ‘’साला ,ओरिजनल भी हम ही रखेंगे और डुप्लीकेट भी ‘ हम करे तो क्या ?
बढ़िया फिल्म है ,अवश्य मनोरंजन करेगी ! देख सकते है .
चार स्टार
देवेन पाण्डेय 

मंगलवार, 19 मई 2015

फिल्म एक नजर में : बॉम्बे वेलवेट


फिल्म एक नजर में : बॉम्बे वेलवेट ‘अग्ली ‘ के बाद अनुराग कश्यप अपनी नई फिल्म लेकर आये है ,जो उनकी अब तक बनाई गई सभी फिल्मो से अलग है ! वैसे ‘बॉम्बे वेलवेट’ अनुराग का सपना रही है ,जिस पर उन्होंने वर्षो मेहनत की है , फिल्म देखते वक्त आपको वह मेहनत साफ़ नजर आती है ,उनकी लगन फिल्म में साफ़ झलकती है ! किन्तु सिर्फ फिल्मांकन तक ही ,कहानी के स्तर पर वह मेहनत नजर नहीं आती जो इसके लोकेशन ,साठ के दशक की मुंबई पर नजर आती है ! और यही इस फिल्म का कमजोर पक्ष है , यह अनुराग की अब तक की सबसे बड़ी बिग बजट फिल्म है ! और बड़े स्टार्स के साथ भी ,इससे पहले अनुराग कम बजट में एवं छोटी स्टार कास्ट के साठ फिल्म बनाते थे ,जिसमे कहानिया भी शशक्त होती थी एवं अभिनय भी ! बात करते है बॉम्बे वेलवेट की ,जिसकी कहानी को देखते हुए इसका नाम ‘वन्स अपन अ टाईम ईन मुम्बई 3 ‘ भी रखा जा सकता था ! फिल्म की कहानी की शुरुवात में दो बच्चे है जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान से मुंबई आते है , और एक बदनाम जगह रहकर जीवन यापन करते है , बलराज महत्वकांक्षी है ! वह जीवन में आगे बढ़ने के लिए किसी भी गलत तरीके को अपनाने से गुरेज नहीं करता , उम्र के साथ बलराज ( रणबीर ) का जूनून भी बढ़ता जाता है ! और ,इत्तेफाक से उसकी मुलाक़ात ‘कैजाद खंबाटा ‘ ( करन जोहर ) से होती है ,जो एक बिजनेस टायकून है ,और हर गलत धंधे करता है ! वह बलराज से प्रभावित है और उसका इस्तेमाल करता है , बलराज को खंबाटा ‘बॉम्बे वेलवेट’ नाम के क्लब का मालिक बना देता है ,किन्तु वह इस क्लब की आड़ में अपने गैरकानूनी धंधो को अंजाम देता है ! वह मुंबई बनने के शुरुवाती दिन है ,जब मुंबई सात द्वीपों का समूह हुवा करती थी ,जिसेपाटकर एक महानगर बनाने की योजना परवान चढ़ रही थी ! इस निर्माण में बिल्डर , मंत्री ,भ्रष्ट अफसर ,उद्योगपतिहर सही गलत तरीको से अपनी तिजोरी भर रहे है , खंबाटा भी मुंबई का सरताज बनने की चाह रखे हुए है ,और बलराज उसके लिए एक मामूली प्यादा है ! दूसरी और बलराज अपने प्यार ‘रोजी ‘(अनुष्का शर्मा ) को क्लब की सिंगर बना देता है ,किन्तु उसका भी एक राज है ,जिसे वह बलराज से छिपा रही है ! इधर बलराज की इच्छाये भी बढती जा रही है,
जिसके चलते खंबाटा से उसके रिश्ते में दरार आ जाती है , और रोजी के राज के कारण ‘खंबाटा ‘ 
उसकी जान का दुश्मन बन जाता है ,फिर बलराज और खंबाटा की लड़ाई का क्या अंजाम होता है ,यही बाकी कहानी है ! अब कहानी सुनकर तो अंदाजा लग ही गया होगा के यह कहानी बोलीवूड में न जाने कितनी बार सुनी सुनाई ,
देखि दिखाई है ! फिल्म में करन जोहर खंबाटा के रोल में खलनायक कम कॉमेडियन ज्यादा लगते है ,
फिल्म के बाकी कलाकारो ने बढ़िया अभिनय किया है ,केके मेनन को करने के लिए कुछ ख़ास नहीं था इसलिए वे वही करते नजर 
आये जो अब तक करते आये है ,अब उनमे दोहराव आने लगे है ,हर फिल्म में एक से भाव भी अच्छे नहीं लगते ! फिल्म जरुरत से ज्यादा डार्क है , फिल्म की नींव भले ही मुंबई है किन्तु फिल्म के परिदृश्य मुम्बई के कम
और किसी अमरीकन गैंग्स्टर फिल्म की ज्यादा याद दिलाते है !
या फिर हो सकता है किसी फिल्म विशेष से प्रभावित हो ,फ़िल्मी जानकार यह बात देखते वक्त समझ भी जायेंगे ,
संगीत फिल्म के मुताबिक़ ही है ,कोई ऐसा गीत नहीं जिसे याद रखा जा सके ,हल्के पल न के बराबर ! 
वैसे फिल्म की बॉक्स ऑफिस रिपोर्ट काफी डांवाडोल नजर आती है , 
जिससे फिल्म वितरको को घाटे का सौदा ही साबित हो सकती है ! अनुराग बेशक बोलीवूड के अलहदा निर्देशकों में से एक है , 
जुनूनी है , किन्तु कभी कभी यही जूनून घातक भी हो सकता है ! 
जिसका ताजा उदाहरण राम गोपाल वर्मा है जो एक समय बोलीवूड में सबसे अलग और उम्दा फिल्मकारों में गिने जाते थे ,
जीन्होने अपनी सनक में एक रौ में फिल्मे बनाई और काफी तारीफे बटोरी ,
किन्तु जल्द ही अति हो गई और अब उनकी फिल्मो से वितरक भी दूर भागते नजर आते है !
फ़िल्मी गलियारों में इस फिल्म को लेकर काफी नकारत्मकता देखि गई जिससे लगता है के कई लोग इस
फिल्म के नकारात्मक रिजल्ट से खुश है , हां ये उनके लिए ख़ुशी की बात हो सकती है ,
क्योकि उन्होंने कभी भी कुछ हटकर देने का प्रयत्न नहीं किया और जिन्होंने किया उसकी असफलता
स्वाभाविक रूप से उन्हें सुख देती हो ! राम गोपाल वर्मा भी ट्विटर पर फिल्म का मजाक बनाने से बाज नहीं आये जो स्वयम बोलीवूड में 
अपनी फिल्मो के जरिये मजाक बन चुके है ! हद तो कमाल खान ने की , स्वयम तो उलजलूल सी ग्रेड फिल्मो में अभिनय शब्द को
शर्मा देनेवाला अभिनय करते है और अनुराग कश्यप को फिल्म बनाने का ढंग सिखाते फिरते है ! इस फिल्म के बहाने बोलीवूड के कुछ मसखरो की पहचान भी होती नजर आई ! उतार चढाव होते रहते है ,
अनुराग ने प्रयास किया ,किन्तु दांव नहीं चला ,
और वे उन फिल्मकारों में गिने जाते है जो अपनी असफलता से सीखते है न की बिफरते है ! ढाई स्टार देवेन पाण्डेय

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