सोमवार, 21 सितंबर 2015

टैक्सीवाले भाईजान

कल कही से वापसी में ऑटो मिल नहीं रही थी ! बारिश की वजह से ट्रैफिक बहुत थी .
रिक्शा मिल नहीं रही थी ,एक काली पिली वैगन मिली जिसमे बैठ गया .
ड्राइवर चालु भाषा का इस्तेमाल कर रहा था ,,
ट्रैफिक लगेली है ,मूड की माँ बहन हो रेली है !!!!!! वगैरह वगैरह .
खैर बैठा और गाडी चल पड़ी , रस्ते में ट्रैफिक की वजह से काफी लोग पैदल जा रहे थे .
उनमे काफी तादाद में लडकिया भी थी !
और इन भाई साहब की नजरे उन्ही पर मेहरबान थी , कोई भी लड़की देखि तो उनके शब्द निम्नप्रकार के होते थे .
'क्या माल है बाप '
जबर आइटम है भाई ,
फुर्सत से बनायेला भाई .
क्या बोलते हो बड़े भाई ? उसने मुझसे पूछा .
पहले तो यार उसकी भाषा से ही चिढ हो रही थी ,ऊपर से उसकी यह बेहूदगी .
मै कुछ नहीं बोला ,
उसके बाद मैंने कुछ ऑब्जर्व किया ,गाडी में एक धर्म विशेष के स्टिकर लगे हुए थे 
( यहाँ किसी धर्म विशेष को टारगेट नहीं कर रहा हु कृपया अन्यथा न ले )
तो मैंने यु ही आगे कुछ बुर्के वाली लड़कियों को देख कर उसे सुनाने की गरज से कहा .
'क्या माल है , '
जबरदस्त आइटम लग रही है भाई '
वो कहने लगा 'क्या कह रेले हो बड़े भाई ,वो तो बुर्कानशींन है आप किधर से आइटम और माल देख रेले हो ? '
मैंने कहा ' भाई नजर होनी चाहिए सब दिखता है , फिगर देख कर पता चलता है '
भाई ऐसा मत बोलो , उसने कहा
मैंने बोला क्या बात कर रहे हो भाई ,माल ही तो है ,
भाई वो बुर्केवाली है , ईमान वाली ,रोजेदार ,उसके बारे में ऐसी बाते नहीं करनी चाहिए .
तो मैंने कहा .
'तो दुसरो की माँ बहने क्या ईमान बेच खायी है जो उन्हें यह सब कह रहे हो ? '' 
'आप खामखाह गुस्सा हो रेले हो , मै पहनावे से बोल रेल था देखो बुर्के में जिस्म ढंका हो तो अच्छा लगता है ,
मैंने कहा 'भाई ईमान तो तुम्हारा खराब है लड़कियों का नहीं ! अपनी वासना पर पर्दा रखो सारी लडकिया पर्दानशींन नजर आएगी .
यदि लडकिया पर्दा कर रही है तो ये उनका ईमान नहीं ,तुम्हारी बेईमानी है , अपनी नजरो पे पर्दा करो भाई .
'आप नहीं जानते इसलिए बोल रेले हो भाई .
गाडी चलाओ , नजर रस्ते पर रखे !
मैंने गुस्से में कहा .
उसने फिर चुपचाप गाडी चलाई ,और रास्ते भर माल आइटम का नाम नहीं लिया .

रविवार, 6 सितंबर 2015

फिल्म एक नजर में : वेलकम बैक -ट्रांसपोर्टर रिफ्युल्ड

फिल्म एक नजर में : ट्रांसपोर्टर रिफ्युल्ड

ट्रांसपोर्टर सीरिज एक एक्शन पैक्ड मनोरंजन के लिए याद की जाती है ,
जिसमे एक ट्रांसपोर्टर की कहानी होती है जो गैरकानूनी
 ट्रांसपोर्टेशन का कार्य करता है ,
जिसके चलते वह बड़ी मुसीबतों में भी पड़ता है और उनसे बच
 भी निकलता है .
ट्रांसपोर्टर की भूमिका में ‘जेसन स्टेथम ‘ हमेशा से तारीफ़ पाते आये और जमे है ! 
किन्तु फिल्म के चौथे संस्करण में वे नदारद है ,
अच्छा ही है क्योकि यह फिल्म इस सीरिज की सबसे कमजोर फिल्मो में 
गिनी जाएगी जिसमे ना ढंग की कहानी है ,
न ही दिलचस्प या हैरतंगेज एक्शन .
फ्रैंक के पिताजी रिटायर हुए है ,और वे अपने बेटे के साथ रहना चाहते है ! 
फ्रैंक ट्रांसपोर्टर है और आपराधिक गतिविधियों में लिप्त है , 
इसी सिलसिले में कुछ लडकिया फ्रैंक को एक पार्सल डिलीवरी के लिए हायर करती है ! 
फ्रैंक राजी हो जाता है किन्तु इन लडकियों का मकसद कुछ और ही है ,
जिसके लिए वे फ्रैंक के पिता का अपहरण कर लेते है !
दरअसल वे लडकिया जिस्मफरोशी में लिप्त रह चुकी है और 
वे उन्हें मजबूर करनेवाले सरगनाओ से बदला लेना चाहते है 
उन्हें बर्बाद करके .
जिसके लिए वे फ्रैंक का इस्तेमाल करना चाहते है ,
अब यहाँ से भागदौड़ शुरू होती है ! 

जो एक जबरदस्ती के क्लाईमैक्स के बाद खत्म हो जाती है .
कहानी में वैसे कुछ नया तो नहीं होता इस सीरिज में , 
किन्तु प्रस्तुतिकरण नया अवश्य होता था ! 
किन्तु यह भाग हर मामले में 
निराश करके एक कमजोर फिल्म बन कर रह जाती है ,
जिसमे ट्रांसपोर्टर सीरिज वाली कोई बात ही नजर नहीं आती .
एक्शन औसत दर्जे के है , जो आपको बॉलीवुड फिल्मो में भी आसानी 
से मिल जायेंगे ,फरैंक के रोल में ‘एड स्क्रीन ‘ सबसे कमजोर रहे है ,
उनमे फ्रैंक वाली कोई खूबी नजर नहीं आती .
देखे जानेलायक कोई ख़ास बात नहीं है ,
नजरंदाज कर सकते है .

डेढ़ स्टार .

वेलकम बैक :
बोलीवूड में सिक्वेल्स का चलन जबरदस्ती थोपा हुवा लगता है ,
जो केवल पिछली फिल्म के नाम को भुनाने के लिए ही प्रयुक्त होता है !
जिसमे न कहानी पर मेहनत की जाती है और न ही फिल्मांकन पर !
 बस पुराने नाम में लपेट कर प्रस्तुत कर दिया जाता है .
ऐसी फिल्मो में एक और नाम शामिल हो गया है ‘अनीस बज्मी ‘ ‘’वेलकम बैक ‘ का .
बॉलीवुड के मंझे हुए एवं अनुभवी कलाकारों को अजीबोगरीब हरकते करते देखना अफसोसजनक है .
कहानी शुरू होती है ,मजनू भाई ( अनिल कपूर ) एवं  शेट्टी भाई ( नाना पाटेकर ) की चिंता से , जिन्हें अपनी शादी की चिंता है .
वे अब शरीफ बन चुके है , मजनू शेट्टी भाई के इस फैसले के हमेशा से खिलाफ रहा है ! किन्तु शेट्टी भाई अब शराफत का चोला ओढ़ चूका है ,इसी समय उन्हें पता चलता है के शेट्टी भाई के पिता ने तीसरी शादी भी की थी और उस शादी से उनकी एक बेटी भी है ‘रंजना ‘ ( श्रुति हसन ) ,अब उस्क्की शादी की जिम्मेदारी भी उदय और मजनू पर आ जाती है !
और वे उसके लिए शरीफ लड़का ढूंढने के लिए अपने समधी ‘डॉक्टर घुंगरू ‘ ( परेश रावल )  को पकड़ते है ,दूसरी ओर घुंगरू को भी पता चलता है के उसकी पत्नी का एक बेटा ‘अजय ‘ ( जॉन अब्राहम ) पहली शादी से है ,जो मुंबई में एक बहुत बड़ा गुंडा है !
 तो वही रंजना और अज्जू भी एकदूसरे से प्यार करने लगते है ,
और वह अज्जू को शराफत का नाटक करने को कहती है .
उदय और मजनू अजय को शरीफ समझकर अपनी बहन की शादी के लिए मान जाते है 
किन्तु उस्क्का राज खुलने पर बिदक जाते है ! 
इसी बिच प्रवेश करते है वांटेड भाई ( नसीरुद्दीन शाह ) 
जो अपने बेटे की शादी भी रंजना से ही करना चाहते है .
इसके बाद होता है बॉलीवुड स्टाईल बेमतलब का कन्फ्यूजन ,
और बेसिरपैर की घटनाये जो साबित करती है मंझे हुए कलाकार भी
 एक्टिंग के नाम पर कुछ भी कर सकते है .
फिल्म में केवल उदय और मजनू ही अच्छे लगते है ,किन्तु कुछ समय तक ही !  
कुछ देर बाद उन दोनों की हरकते भी लाउड होने लगती है , 
उदय शेट्टी का बारबार ‘कंट्रोल ‘ कहना भी अति लगने लगता है .
कहानी के नाम पर भेडचाल है , 
ओवर एक्टिंग में सभी एकदूसरे से आगे है ,
इसलिए किसी विशेष का उल्लेख आवश्यक नहीं .
गीत संगीत चलताऊ है ,जो कर्कश लगते है ! 
एक गाने में अनु मालिक की आवाज भी सुनने को मिलती है ,
जिसे सुनकर वाकई सरदर्द होने लगता है ,
वे म्यूजिक कम्पोजर ही ठीक है .
सभी एक्टर्स अपने हाल पर छोड़ दिए गए प्रतीत होता है ,
मानो जिसे जैसे एक्टिंग करनी है करो .
क्लाईमैक्स की भागदौड़ अब आउटडेटेड हो चुकी है ,
किन्तु फिर भी न जाने क्यों कॉमेडी फिल्मो के नाम पर ऐसी बेवकुफिया 
अब भी झेली जा रही है .
कुल मिलाकर यह एक औसत फिल्म है , 
देखे या न देखे कोई फर्क नहीं पड़ता .

डेढ़ स्टार
देवेन पाण्डेय 

शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

'मांझी दी माउन्टन मैन : ‘शानदार ,जबरजस्त ,जिंदाबाद ‘

बिहार के अतिपिछडे इलाके में जन्मे ‘दशरथ मांझी ‘ की सत्य कथा पर आधारित इस फिल्म के निर्माण होने की घोषणा होने पर उत्सुकता जगी थी के अब बॉलीवूड में कुछ तो सार्थक देखने को मिलेगा .
और फिल्म देखने के पश्चात यह बात सत्य प्रतीत हुयी ,वैसे भी बॉलीवूड की हवा आजकल कुछ बदली हुयी है ! काफी रचनात्मक प्रयास आ रहे है , किन्तु भेडचाल अभी भी जारी है ! स्टारडम के खेल में न जाने कितनी ही उल जलूल फिल्मो से बॉक्स ऑफिस भरा पड़ा रहता है ,एक खोजे तो सौ मिलेंगी ऐसी मनोरंजन के नाम पर कूड़ा फिल्मे , किन्तु कुछ अच्छी एवं साहसिक फिल्मो का नाम लिया जाए तो उंगलियों पर गिनने लायक ही मिलेंगी ! इस साल की सर्वाधिक चर्चित एवं सफल फिल्म भी बॉलीवूड की बजाय दक्षिण की रही ,जिसने बड़े बड़े स्टारों के गुमान को चूर करके एक नया इतिहास रच दिया ,
चूँकि मांझी और बाहुबली दोनों ही में ही जमींन आसमान का फर्क है ,
किन्तु यहाँ दोनों फिल्मे साहसिक प्रयोग के लिए ही चर्चित होंगी इसमें संदेह नहीं .मांझी के निर्माता है ‘केतन मेहता ‘ जिन्होंने ‘मंगल पाण्डेय ‘ से प्रसिद्धि बटोरी थी ,
काफी आलोचना भी झेली थी, इतिहास का गलत चित्रांकन एवं तथ्यों को तोड़मरोड़ कर 
पेश करने के मामले में .उनकी इस फिल्म की चर्चा तो बहुत हुयी किन्तु यह सफल न हो सकी ! 
उनके विवादास्पद प्रयोग जारी रहे और ‘रंगरसिया ‘ फिल्म के रूप में दोबारा वे नजर आये ,
जो के फिल्म के मूल विषय से ज्यादा फिल्म के अन्तरंग दृश्यों से अधिक चर्चा एवं विवादों में रही .इसी क्रम में आती है ‘मांझी ‘ ! 
मांझी के बारे में अधिकतर लोगो को शायद पता न हो , 
किन्तु इस फिल्म के प्रचार प्रसार के दौरान जरुर लोगो के मैन में इस व्यक्ति के प्रति 
उत्सुकता पैदा कर दी,जिसने अकेले एक पहाड़ को बाईस साल तक कड़ी मेहनत से तोड़ मार्ग बनाया .यह हमारे देश का दुर्भाग्य है के यहाँ ऐसे लोग सदैव अभावो में जीते है, 
जो सच में कुछ अच्छा करना चाहते है ! अभाव, गरीबी, ही इनका मुकद्दर है ,
 मांझी पर आमिर खान के कार्यक्रम ‘सत्यमेव जयते ‘ में भी एक विशेष एपिसोड था !किन्तु उससे क्या बदला ? कुछ भी नहीं , मांझी का परिवार उनकी मृत्योपरांत आज 
भी गरीबी रेखा के निचे जी रहा है, और किसी को उनकी सुध नहीं !मांझी जब युवा थे तब दबंगों एवं ऊँची जातियों के बिच पिसते रहे ,
अत्याचार और शोषण सहते रहे , 
मरने के बाद भी मांझी केवल फायदे के लिए ही याद किये जाते है नहीं 
तो किसी को क्या लेना देना .फिल्म की बात करते है ,यहाँ भी सत्य कहानी की नीरसता को महसूस करते हुए 
निर्माता निर्देशक कुछ बिनमतलब  के दृश्यों का छौंका लगाने की मज़बूरी के
 शिकार नजर आये .जो शायद बॉक्स ऑफिस की मज़बूरी भी कह सकते है ,यहाँ जब तक कुछ चटपटा न मिले
 तब तक कोई कुछ देखना नहीं चाहता !‘’दशरथ मांझी ‘( नवजुद्दीन सिद्दीकी ) एक पिछड़ी जाती का युवक है , 
जो एक दुर्गम प्रदेश में रहता है ,जहा कोई भी सुविधा नहीं है ! 
एकमात्र अस्पताल एवं सडक भी पहाड़ के पार है ,जिसे या तो चालीस 
किलोमीटर सडक से पार करे अथवा पहाड़ चढ़ कर .मांझी के पिता गाँव के दबंग मुखिया ( तिग्मांशु धुलिया ) के कर्जे के चलते बंधुवा मजदूरी पर विवश है , 
और तो और मांझी भी बंधुवा बनने की रह पर है किन्तु उसे यह मंजूर नहीं होता
 और वह घर छोड़ कर भाग जाता है .कुछ वर्षो पश्चात उसकी वापसी होती है ,और वह अपनी पत्नी ‘फगुनिया ‘ 
( राधिका आप्टे ) से मिलता है ! जिसके साथ उसका विवाह बाल्यकाल में ही हो जाता है .दोनों में प्रेम अटूट है ,अभावो की मार भी इस अहसास को कमजोर नहीं कर पाती ,किन्तु इनके प्रेम को नजर लग जाती है और फगुनिया पहाड़ से गिर जाती है ,
 समय पर इलाज के अभाव में फगुनिया की मृत्यु हो जाती है  
और मांझी विशिप्त सा हो जाता है .अब वह उस पहाड़ को ही फगुनिया की मृत्यु का कारण मानता है और जुट जाता है
अकेले उस पहाड़ को तोड़ने के लिए .शुरुवात में सभी उसे पागल समझते है ,नजरअंदाज कर देते है ! 
किन्तु शीघ्र ही उसके कार्य का असर दीखता है एवं दबंगों का दबाव भी बढ़ता है ,
 सरकारी मदद भी हडप ली जाती है ,किन्तु मांझी हार नहीं मानता और बिना 
किसी सरकारी मदद के अथक प्रयत्नों से पहाड़ तोड़ कर मार्ग बना देता है .मांझी के किरदार में नवजुद्दीन एकदम सही है ! 
उन्होंने बहुत जल्दी बोलीवूड में अपनी पैठ बना ली है ,आलम यह है के नवाजुद्दीन का भी 
एक अलग दर्शक वर्ग तैयार हो गया है ,जो उनके नाम पर खींचे चले आते है के 
कुछ बढ़िया देखने को मिलेगा .मांझी के किरदार में वेपुरी तरह से राम से गए है , उनकी एक्टिंग फिल्म की आत्मा है  ,
तो वही राधिका आप्टे भी नए नए रोल्स में दिख रही है ! 
यहाँ उन्होंने गलैमरविहीन महिला का किरदार अदा किया है ,
और वे पूरी तरह से उस किरदार में घुल जाती है ,गाँव के मुखिया के किरदार में है तिग्मांशु धुलिया जो स्वयम एक निर्देशक है !  
यहाँ वे गैंग्स ऑफ़ वासेपुर के रामाधिर सिंह  की याद दिलाते है .संगीत पक्ष की बात करे तो फिल्म में गीत संगीत के लिए कोई स्कोप था ही नहीं ,
इसलिए उम्मीद न ही रखे !एक फिल्म के रूप में ‘मांझी ‘ वाकई बढ़िया एवं उत्कृष्ट फिल्म है ,
जिसे सिनेमाप्रेमियो को अवश्य देखना चाहिए ,यहाँ स्टारडम भले ही नहीं है किन्तु कहानी है ,
बढ़िया अभिनय है और बढ़िया प्रस्तुती है .और अंत में फिल्म का एक संवाद जो इसकी कहानी स्वयम प्रस्तुत करता है ,
अब तक के बेहतरीन संवादों में से एक ,मांझी के शब्दों में कहे तो 
‘शानदार ,जबरजस्त ,जिंदाबाद ‘'भगवान के भरोसे नहीं बैठना चाहिए, क्या पता भगवान हमारे भरोसे बैठा हो।'चार स्टारदेवेन पाण्डेय 

रविवार, 2 अगस्त 2015

कारवाँ : ग्राफिक नावेल समीक्षा

कारवां : एक खुनी यात्रा ,
कुछ अरसे पहले कॉमिक्स जगत काफी सदमे झेल चूका था , 
बड़ी बड़ी दिग्गज कॉमिक्स कम्पनीज बंद हो रही थी ! 
वजह कुछ भी रही हो ,पाठको की बदलती रूचि ,मनोरंजन के बढ़ते साधन ,
पढने में रूचि कम होना ,
एवं बदलते समय के साथ कॉमिक्स पाठको के विचार बदलना .
हमारे समाज में कॉमिक्स अभी भी बच्चो की ही चीज मानी जाती रही है ! 
यहाँ अमरीका जैसा कॉमिक्स कल्चर नहीं है जहा कॉमिक्स बच्चो की नहीं बल्कि वयस्कों की चीज है , 
वहा तो कॉमिक्स जगत का अनुठा संसार है जहा हर साल कॉमिक्स पात्रो पर बनी हुयी फिल्मो को
 हाथो हाथ लिया जाता है और अरबो खरबों की कमाई की जाती है ! 
दिलचस्प बात यह है के हमारे भारत में भी ऐसी फिल्मो का बड़ा बाजार बन चुका है ,
किन्तु कितने लोग है जो यह जानते है के परदे पर दिखने वाला यह लाल लोहे का कवच पहने
 व्यक्ति कॉमिक्स की दुनिया से आया है ?
डरावने स्याह लिबास और लबादा पहने वह चमगादड़ सदृश्य जीवट व्यक्ति कॉमिक्स की 
दुनिया से परदे पर आया है ? लाल लबादा और नीली पोशाक धारी शक्तिमान नायक भी
 इन्ही कॉमिक्स की देन है .
आसपास नजरे दौडाए तो हर साल भारत में भी करोडो का व्यापार करने वाली विदेशी फिल्मो
 के यह चरित्र कॉमिक्स की चमकीली दुनिया से ही तो आये है ! 
फिर क्यों लोग कॉमिक्स को बच्चो की चीज कहते है ?
क्योकि हमने इन्हें बना दिया है , कॉमिक्स पढनेवाली पीढ़ी बड़ी हो गयी किन्तु कम्पनीज
 अभी भी बच्चो के दौर में ही है ! 
समय के अनुरूप बदलाव ही नहीं किये गए जबकि परिवर्तन नितांत आवश्यक है ! 
कॉमिक्स इंडस्ट्री के इस नाजुक समय में भी कई कम्पनीज ने इसी तर्ज पर चलते हुए इस
 मिथक को तोड़ने का प्रयत्न किया है के कॉमिक्स बच्चो की चीज नहीं है ,
यह एक सम्पुर्ण मनोरंजन है ! 
आप उपन्यास पढ़ते है , इसी तरह से कॉमिक्स भी उपन्यास का ही एक चित्रित स्वरूप है 
जिसमे विवरण शब्दों की बजाय चित्रों से वर्णित किया जाता है ,किन्तु यह बात जल्द समझ नहीं आती .
इसी प्रयास के तहत सृजन हुवा कॉमिक्स के बदले स्वरूप ‘ग्राफिक नावेल ‘ का , 
यह नाम थोडा वजनदार भी है ,और इसमें से ‘बच्चो ‘ वाली फिलिंग भी नदारद है ! 
आजकल कुछ नए पब्लिशर्स ऐसी ही रचनाये पाठको के सामने प्रस्तुत कर रहे है जो 
कॉमिक्स से जुड़े मिथकों को चुनौउती देते है और सफल भी होते है .
‘याली ड्रीम्ज क्रिएशन ‘ की कुछ समय पहले ‘शामिक दासगुप्ता ‘ जी द्वारा लिखित
 ‘ग्राफिक नावेल ‘ ‘’कारवां ‘ ने काफी प्रशंशा बटोरी थी , जो अंग्रेजी में थी ! 
हां नए पब्लिशर्स हिंदी में अपनी पुस्तक पब्लिश करने का जोखिम नहीं उठाना चाहते क्योकि
 इसका बाजार सिमित था ,और प्रॉफिट की कुछ विवशताए भी थी ! 
कारवाँ भी अंग्रेजी में ही आई थी ,किन्तु इसे काफी सराहा गया और सकारात्मक प्रतिक्रियाये मिली .
समय थोडा और बदला और हिंदी पाठको की सक्रियता को पब्लिशर भी नहीं नकार सके ! 
शायद यही वजह रही हो के यह पुस्तक अब हिंदी में भी प्रकाशित हुयी और जिसकी चर्चा
 पिछले कुछ महीनो से विभिन्न कॉमिक्स ग्रुप्स में जोरो पर रही ! 
हिंदी पाठको की मांग को देखते हुए इसे दोबारा नए कलेवर में हिंदी में रिप्रिंट किया गया जिसके
 परिणाम भी पुस्तक को देखते हुए शत प्रतिशत सकारात्मक एवं उत्साहजनक ही होंगे यह तय है .
कारवाँ की कहानी मै अंग्रेजी में भी पढ़ चूका हु ,किन्तु हिंदी पढने के पश्चात यह लगा के
 हिंदी में जो मनोरंजन की क्षमता थी वह अंग्रेजी में नहीं थी क्योकि कहानी के वातावरण 
के अनुरूप इसमें देसी लहजे का प्रयोग ही अधिक सुविधाजनक होता ! 
जो के हिंदी वर्जन में है ,कहानी एकदम देसी टच लिए हुए है ,गोरखपुरी एवं राजस्थानी टोन लिए हुए , 
बहुत कम पुस्तके होती है जो ट्रांसलेशन के बाद भी अपने मूल रूप से अलग बन पाती है ,
उनमे ट्रांसलेशन की झलक साफ़ दिखती है !
किन्तु इसमे ट्रान्सलेशन लगता ही नहीं ,मानो पुस्तक मूल रूप से हिंदी में ही बनी हो !
 इसके लिए इसके ट्रांसलेटर ‘विशाल पाण्डेय ‘ जी निस्संदेह प्रशंषा के पात्र है ,
अभी तो शुरुवात है इनकी .
कारवाँ कहानी है पिशाचो के एक दल की ,जो वर्षो से दुनिया के बीहड़ इलाको में जाकर
 लोगो के मनोरंजन की आड़ में तबाही का रक्तिम खेल खेलता है और लुप्त हो जाता है !
एक ऐसी ही मुठभेड़ में ‘आसिफ ‘ के अम्मी अब्बू इन पिशाचो का शिकार बन जाते है !
 और सारे गाँव में अकेला आसिफ ही बचता है जिसकी कहानी पर किसी को विश्वास नहीं !
समय के साथ वह एक तस्कर बन चूका है और एक इमानदार पुलिसवाले राठौड़
 के हाथो पकड़ा भी जाता है ,
किन्तु परिस्थितिया कुछ ऐसी बनती है के ,उन्हें मरुस्थल में स्थित एक किले में शरण लेनी पडती है .
जहा बीएसएफ के जवानों ने डेरा डाल रखा है ,जिनका प्रमुख है दरोगा भैरो सिंग ,
जो एक काईयाँ अफसर है ,वह आसिफ को अपने कब्जे में ले लेता है और उसका विरोध करती 
है उसकी भतीजी ‘दुर्गा ‘ जो अपने चाचा के कारनामो से परेशान रहती है ! 
और इसी रात उस किले की ओर रुख करता है ‘कारवाँ ‘
इस बीहड़ और दुर्गम मरुस्थल में कारवाँ में मौजूद सुंदरियों को देख कर हर कोई
 अपनी सोचने समझने की क्षमता ताक पर रख देता है और उन्हें यहाँ नौटंकी की परमिशन दे डी जाती है , 
इस कारवाँ को देखकर आसिफ दहल जाता है और वह इन्हें निमंत्रण न देने को कहता है ,
किन्तु उसकी कोई नहीं सुनता !
अब कारवाँ ने अपना डेरा इस किले में डाल दिया और शुरू होता है खेल जो रात्री के साथ 
साथ खुनी हो जाता है ,मनोरंजन आतंक में तब्दील हो जाता है जब इस कारवाँ और
 उनकी सुंदरियों का असल रूप सामने आता है ,
फिर क्या होता है ? यही शेष भाग है जो काफी दिलचस्प है , इसके बाद सिर्फ जीवित बचे रहने की 
जिजीविषा ही है ! जो कैसे कैसे मोड़ से गुजरती है यह पढना दिलचस्प होता है .
पूरी पुस्तक एक फिल्म की तरह है ,जिसमे पर्याप्त गति है ,क्षमता है बांधे रखने की !
 कंटेंट थोड़े मैच्योर है और चित्रों संवादों में साफ़ नजर आते है ,
किन्तु कहानी के परिवेश के हिसाब से अखरते नहीं है .
चित्रांकन शानदार हुवा है बिनाश्क ,जो मोह लेता है ! खासतौर पर कारवाँ की रूपसियो का
 सजीव चित्रं लाजवाब है ,
अंग्रेजी जहा बड़ी साईज में थी वह हिंदी वर्जन सामान्य कॉमिक्स की साईज है जो देखने में 
और सम्भालने में आकर्षक लगती है ! कवर आर्ट बदल दिया गया है और बेहद सुंदर बनाया गया है ,
किन्तु पुराने कवर्स को भी होना चाहिए था !
इसमें नायक कौन है यह आप शायद निश्चित न कर पाए ,किन्तु इसका नायक न 
आसिफ है,न राठौड़ , इसके नायक है भैरो सिंग और दुर्गा ! गजब के ढीठ और साहसी ,
इतनी विषम परिस्थितियों में भी लड़ने की कुव्वत होना बहुत बड़ी बात होती है ,
और भैरो सिंग का झुझारुपन भी जबरदस्त है , जहा आसिफ और राठौड़ केवल 
अपनी जान बचाते नजर आते है वही भैरो सिंग अकेले कारवाँ को नाको चने चबवा देता है !
यह चरित्र अभी आएगा शायद कहानी के अंत में इसका आशय दर्शाया है ,किन्तु एक नए रूप में !

हिंदी में आये इस प्रयास की सफलता ही हिंदी ग्राफिक नावेल का आगे का मार्ग सुनिश्चित करेगा ! 
कॉमिक फैन्स और पाठको को अवश्य पढनी चाहिए .

रविवार, 19 जुलाई 2015

फिल्म एक नजर में : बजरंगी भाईजान


कबीर खान ने बतौर निर्देशक अपनी फिल्म ‘काबुल एक्सप्रेस ‘ से काफी प्रशंषा बटोरी थी , 
कुछ समय बाद वे सलमान के साथ ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘ एक था टाईगर ‘
 में नजर आये जो उनकी पिछली फिल्म से एकदम अलग थी और मसालेदार
 एक्शन से भरी थी ! सलमान भी लगातार एक्शन भूमिकाओं में दिखने लगे 
जिसमे वे काफी जमते भी थे एवं हिट भी रहे !
ऐसे में जब सलमान एक एक्शन स्टार के रूप में अपनी इमेज मजबूत कर चुके है , 
‘बजरंगी भाईजान ‘ जैसी भावुक फिल्म करना एक हिसाब से रिस्क ही कहा जायेगा !
 फिल्म रिलीज के पहले काफी विवाद बटोर चुकी है ,कुछ संगठनों को इसके 
नाम पर ऐतराज था ! किन्तु यदि ये फिल्म और उसका कथानक देखा जाये तो 
आपको इसके नाम पर गर्व होगा न की विषाद .
फिल्म की कहानी के केंद्र में है ‘मुन्नी ‘ ( हर्शाली मल्होत्रा ) जो एक छह साल की बालिका है ,
 एवं एक दुर्घटना के कारण बोल नहीं सकती !
उसकी  माता उसे भारत इसी सिलसिले में लेकर आती है ,और वापसी में ‘अटारी ‘ 
स्टेशन पर मुन्नी बिछड़ जाती है .
और मिलती है ‘पवन चतुर्वेदी ‘ ( सलमान खान ) से जो ‘बजरंगी ‘ 
नाम से ज्यादा प्रसिद्ध है !  पवन एक सीधा साधा व्यक्ति है और बजरंगबली जी का भक्त है ,
 और वह इस बच्ची से पहले तो पीछा छुड़ाना चाहता है 
किन्तु जल्द ही वो इसे वापस अपने घर पहुँचाने की ठान लेता है ! 
उस वक्त उसे पता नहीं होता के मुन्नी पाकिस्तान से है , 
वह एक कट्टर परिवार के साथ रहता है जिसका प्रमुख ( शरत सक्सेना ) उसके 
स्वर्गीय पिता का मित्र है ,और जब उन्हें पता चलता है तो वह उसे पाकिस्तानी
 एम्बेसी छोड़ने के लिए कहते है , किन्तु एम्बेसी के सामने पवन मुन्नी को 
पाकिस्तानी नहीं साबित कर पाता और न ही उसके पास पासपोर्ट है जिसके कारण
  उसे भगा दिया जाता है ! सब रास्ते बंद देख कर पवन स्वयम मुन्नी को पाकिस्तान 
पहुँचाने की ठानता है ,जिसमे उसका साथ देती है ‘रसिका ‘ ( करीना ) 
जिनके यहाँ पवन मेहमान है
अपने प्रयत्नों से पवन पाकिस्तान पहुँच तो जाता है ,किन्तु अवैध प्रवेश  के कारण 
उसे बहुत सी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है ! वहा पहुँचते ही उसे भारतीय जासूस
 घोषित कर दिया जाता है ,और सारी पुलिस और मिलिट्री उसकी तलाश में लग जाती है ,
तब उनका साथ देता है ‘चाँदनवाज ‘ ( नवजुद्दीन सिद्दीकी ) जो एक लोकल पत्रकार है
 और किसी धमाकेदार खबर की तलाश में है ! पहले पहल वह पवन को भारतीय 
जासूस मान लेता है किन्तु उसकी कहानी जानकर वह उसकी सहायता करता है ! 
फिर क्या होता है ,मुन्नी वापस अपने घर पहुँच पाती है या नहीं ? 
पवन सुरक्षित भारत वापस आता है या नहीं ? यही अगली कहानी है ,
जिसे फिल्म में ही देखे तो अच्छा .
कहानी सीधी है ,बिना किसी लागलपेट के ! और दर्शको के मन को छूने वाली , 
सलमान अपनी एक्शन इमेज से विपरीत रहे है ,एकाध एक्शन दृश्य है नाममात्र के ,
वे भी कहानी के हिसाब से सही है ! फिल्म की कहानी के हिसाब से
 यह एक जबरदस्त एक्शन फिल्म हो सकती थी ,किन्तु इससे बचा गया है 
और फिल्म में कही भी रंजकता को स्थान देने के बजे मानवीय मूल्यों को 
अधिक प्राथमिकता दी गयी है .
पवन के चरित्र में सलमान काफी भावुक करते है ,तो मुन्नी के अभिनय में नन्ही 
हर्शाली सबका दिल जीत लेती है ! पूरी फिल्म में बिना एक भी संवाद के वे
 सबका दिल जीत लेती है ! फिल्म में कई भावनात्मक पल है जो बरबस ही 
पलके नम कर देते है तो कभी मुस्कुराने पर विवश कर देते है !
रसिका के अभिनय में करीना मात्र खानापूर्ति करती है ,वैसे भी उनका रोल ज्यादा नहीं है
 मध्यांतर के पश्चात लगभग नदारद रही है ! तो फिल्म में अपनी दमदार छाप छोड़ते है
 ‘नवाजुद्दीन सिद्दीकी ‘ जो एक लोकल मीडियाकर्मी की भूमिका में गुदगुदाते है ,
कही कही तो वे सलमान पर भी भारी पड़ते दिखे है ,
संगीत पक्ष में एकाद हिट गाने ही है ,बाकी बेवजह का कोई गीत हो ऐसा महसूस नहीं हुवा ,
केवल एक युगल गीत को अपवाद रखे तो ,साफ़ सुथरी मनोरंजक फिल्म है जिसे 
पुरे परिवार के साथ देखा जा सकता है ,फिल्म में न तो किसी धर्म का उपहास है 
और न ही किसी मजहब का मजाक ,कोई भाई भरकम उपदेश भी नहीं देती !  
क्लाईमैक्स थोडा नाटकीय हो गया .
चार स्टार

देवेन पाण्डेय 

सम्पर्क करे ( Contact us )

नाम

ईमेल *

संदेश *